dar ka samna nidar hokar karen | kosare maharaj

नमस्कार दोस्तों, डर का सामना निडर होकर करें | कोसारे महाराज नैतिक शिक्षा के द्वारा हमारी आने वाली पीढ़ी को हमारे ऋषियों, मुनियो द्वारा अर्जित ज्ञान को समझाने मात्र की कोशिश कर रहे है। जिसके द्वारा व्यक्तित्व निर्माण होता है। किसी व्यक्ति की दुर्बलता ही उसके मृत्यु का लक्षण है" दुर्बल या कमजोर व्यक्ति से न कोई दोस्ती करता है, न कोई रिश्तेदार होते है और उसके अपने भी उसे तथावत स्थिति में छोड़ देते है। ऐसा व्यक्ति पग पग पर अपमानित हो सकता है। इसलिए व्यक्ति को साहस हर कदम पर साथ रखना चाहिए। अधिक जानकारी के फोन संपर्क : 9421778588

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 डर का सामना निडर होकर करें | कोसारे महाराज

नैतिक शिक्षा के द्वारा हमारी आने वाली पीढ़ी को हमारे ऋषियों, मुनियो द्वारा अर्जित ज्ञान को समझाने मात्र की कोशिश कर रहे है। जिसके द्वारा व्यक्तित्व निर्माण होता है। किसी व्यक्ति की दुर्बलता ही उसके मृत्यु का लक्षण है"





दुर्बल या कमजोर व्यक्ति से न कोई दोस्ती करता है, न कोई रिश्तेदार होते है और उसके अपने भी उसे तथावत स्थिति में छोड़ देते है। ऐसा व्यक्ति पग पग पर अपमानित हो सकता है। इसलिए व्यक्ति को साहस हर कदम पर साथ रखना चाहिए। मतलब हर स्थिति के लिए हर पल तैयार। भय मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। जैसे कुछ लोग पांव भीगने के डर से समुद्र में कदम नहीं रखते है। ऐसे लोगो को ही समुद्र में डूबने का खतरा ज्यादा होता है। जबकि निडर व्यक्ति सबसे पहले तैरना सीखेगा और तैरना सीखने के बाद खुले समुद्र में बेहिचक छलांग लगा कर मोती चुनकर लाता है। भय करने वाले लोग पहले आपको डराते है, और आपके सफल होने पर तालियाँ बजाकर मन ही मन ऊपर वाले को कोष कर रह जाते है।


साहसी होने के फायदे :


साहसी व्यक्ति हमेशा कर्मशील रहता है। उस व्यक्ति के अंदर हमेशा स्वतंत्र चिंतन और मनन की प्रवृति बनी रहती है। आपको जानकार आश्चर्य होगा की कभी कभी ऐसे व्यक्ति सपनो में ऐसे रसो का स्वाद चखते है जो साधारण डरे हुए व्यक्ति कभी सोच ही नहीं सकता, उससे सुख पाने की बात तो बहुत दूर की बात है।
तो वही साहसी व्यक्ति समुद्र की विशाल लहरों को चीरकर तैरने का दम रखता है।

निडर या साहसी व्यक्ति को पता होता है की कोई भी कार्य बिना योजना के होता नहीं है। समुद्र विशाल है अगर ये सोचकर कोई तैरना ही छोड़ दे तो मूर्खता ही होगी। निडर व्यक्ति अपने जन्म और मरण के सत्य से अवगत होता है। उसके अंदर आत्म विश्वास होता है और उसे पता होता है की ये कार्य वो उतनी ही आसानी से कार्य कर सकता है जैसे की दैनिक कार्य होते है। उसे पता होता है की हार उसी की होती है जिसे अपनी योजना पर पूर्ण विश्वास नहीं होता अर्थात उस स्थिति में भी डर का ही अहम् रोल निर्धारित है।


डर जन्मजात है। अन्य भावनाओं की तरह यह भी स्वाभाविक है। हमारी सलामती के लिए इसका होना ज़रूरी भी है। किंतु हर चीज़ की तरह डर की भी एक हद है। उससे आगे बढ़ जाए तो वह स्वाभाविक नहीं रह जाता बल्कि सेहत, सुरक्षा, सामाजिकता और ख़ुशी को नुक़सान पहुंचाने लगता है, और सामान्य जीवन में बाधा बन जाता है।
समझदारी इसी में है कि जिस डर के चलते जीवन का सुख-चैन खोने लगे, उससे छुटकारा पा लिया जाए, चाहे वह डर कितना ही बड़ा क्यों न हो! अच्छी बात यह है कि हम ऐसा कर सकते हैं।

बचपन से लेकर आज तक हम सभी किसी न किसी चीज़ से डरते आए हैं– चाहे वह कॉकरोच या छिपकली का डर हो या अंधेरे या ऊंचाई का डर। सिर्फ़ बच्चे ही नहीं बड़ों में भी अनेक प्रकार के डर निरंतर महसूस होते हैं। हमने कोरोना काल में देखा है कि डर हमारे जीवन में किस तरह शामिल हो गया। आख़िर कहां से आते हैं ये डर? इनका हमारे जीवन में क्या उपयोग है? क्या हर डर बुरा ही होता है? डर लगने से हमें क्या हानि और लाभ होते हैं? क्या डर का कोई इलाज होता है? क्या हम अपने डर पर विजय प्राप्त कर सकते हैं? यदि हां, तो कैसे? सवाल बहुत-से हैं।



जन्म लेते ही डर से मुलाक़ात :



जब हम दुनिया में आते हैं, तब दो मुख्य भाव जीवन को आगे बढ़ाते हैं। एक भूख और दूसरा डर। कल्पना कीजिए कि तीन-साढ़े तीन किलो का शिशु अभी-अभी जन्मा है। छोटा-सा शिशु कितना नाज़ुक और असहाय है। अपनी हर ज़रूरत के लिए माता-पिता या देखभाल करने वालों पर निर्भर है। उसके बस में कुछ भी नहीं सिवाय रोने के। उसे भूख लगती है तब भी रोता है, गीला करने पर भी रोता है और पेट भरा होने पर, सूखा होने पर भी रोता है। जब मां गोद में उठा लेती है तो चुप भी हो जाता है। मां की गोद में ऐसा क्या है जिसके लिए वह रो-रोकर उसे पुकारता है? मां की गोद में उस नन्हे शिशु के लिए सुरक्षा-भाव जन्म लेते हैं। वह एक सुरक्षित स्थान (गर्भ) से एक अनजान वातावरण में ख़ुद को पाता है। इस वातावरण में उसे गर्मी, सर्दी, भूख- वे सारे एहसास हो रहे हैं, जो अंदर नहीं होते हैं। एक कठोर दुनिया उसे डराती है। मनुष्य जीना चाहता है। सुरक्षित रहना चाहता है पर इस वक़्त इस शिशु को जैसे सबकुछ एक ख़तरा प्रतीत होता है। सब भयावह और डरावना लगता है। डर के भाव से यह हमारी पहली मुलाक़ात है।



निडरता का राज़ परवरिश में है :


अगर माता-पिता किसी भी कारणवश अपने बच्चों को सुरक्षित महसूस नहीं करवा पाते तो उनके कोमल मन में असुरक्षा का भाव हमेशा के लिए घर कर जाता है और वे जीवनभर इससे संघर्ष करते हैं। तो डर से निपटने की सबसे पहली सीख हमें यहीं से मिल गई।
अक्सर अभिभावक छोटी-छोटी चीज़ों पर बच्चों को डराते-धमकाते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों की परवरिश का यह बहुत अच्छा तरीक़ा है, इससे बच्चे अनुशासन में रहेंगे और अच्छा काम करेंगे। पर मनोवैज्ञानिक शोध यह बताते हैं कि ऐसा करने से हम अनचाहे ही बच्चों के मन में डर पैदा करते हैं। अनुशासन के और भी आसान और उपयोगी तरीक़े हैं। बच्चों को हर हाल में संरक्षण, दुलार और सुरक्षा-भाव मिलना ही चाहिए।




डर उत्पन्न करने वाले भाव :



डर को पूरी तरह दूर करने के लिए हमें एक और सिद्धांत पर ग़ौर करना होगा। डर उत्पन्न करने वाले भाव हमेशा भविष्य काल में होते हैं। ‘मैं लिफ्ट में फंस जाऊंगा’, ‘मुझे कोरोना हो जाएगा’, ‘लिफ्ट बंद हो जाएगी’, ‘मेरे परिवार को कोरोना हो जाएगा’, ‘मैं स्टेज पर जाऊंगा तो मुझसे ग़लती हो जाएगी’, ‘लोग मुझ पर हंसेंगे’ आप देख पा रहे हैं कि विभिन्न प्रकार के डरों में विचार हमेशा ‘गा, गे, गी’ में ही ख़त्म हो रहा है।

इसका सीधा मतलब यह है कि इंसान भविष्य में होने वाली अनहोनी से पूरी तरह बचना चाहता है और उसको टालने के लिए भरसक प्रयास करता है। कोरोना को टालने के लिए स्वयं को एक कमरे में बंद कर लेता है, बार-बार अत्यधिक हाथ धोने लगता है, हर जगह सैनिटाइज़र का छिड़काव करता है, घर के दूसरे लोगों को भी बाहर नहीं जाने देता, उसे हर वक़्त घबराहट होती रहती है। ज़रा-सी छींक आने पर भी डर लग जाता है।

इस तरह के अस्वस्थ करने वाले डर में समझने वाली बात यह है कि ख़तरा पूरी तरह से कभी टलने वाला है ही नहीं। जीवन क्षणभंगुर, अस्थायी और परिवर्तनशील है। साथ ही मनुष्य भविष्य को कभी अपनी मुट्ठी में कर ही नहीं सकता। हम केवल सावधानी भर रख सकते हैं और इतना ही हमारे हाथ में है।


ग़ौर कीजिए, डर की स्थिति में मन एक वैचारिक त्रुटि कर रहा है। वह 5% ख़तरे को बढ़ा-चढ़ाकर 95% बता रहा है जबकि सच्चाई यह है कि अगर हम सावधानी बरत रहे हैं तो कोरोनावायरस का ख़तरा बहुत कम है। ध्यान रखने वाली दूसरी बात यह है कि इस बीमारी से 97% से भी ज़्यादा लोग पूरी तरह से स्वस्थ हो रहे हैं।




डर से निडरता की ओर कैसे जाएँ :


भय तुमको है। तुम पहले हो, भय बाद में है। तुमने भय का ‘चुनाव' करा है। तुम्हारी हालत ऐसी है, तुम्हारी नीयत ऐसी है, तुम्हारी आत्म-परिभाषा ऐसी है, तुम्हारे इरादे और तुम्हारी ज़िद ऐसी है कि तुम्हें भय को पकड़कर रखना है। तो तुम्हारा प्रश्न ही ग़लत है कि हम भय से अभय की ओर कैसे आयें। तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे भय ज़बरदस्ती आकर के तुमसे चिपक गया है।

जहाँ लालच है वहाँ भय है, जहाँ झूठ है वहाँ भय है, जहाँ अन्धेरा है वहाँ भय है। भय पीछे आता है, पहले कामना आती है। जिसको लालच नहीं, उसे डर होगा क्या? जो झूठ नहीं बोल रहा, वो किससे डरेगा? अब अभय तो चाहिए लेकिन लालच नहीं छोड़ने हैं, कामनाएँ नहीं छोड़नी, ज़िन्दगी के हसीन सपने नहीं छोड़ने। ज़िन्दगी के हसीन सपने पालते ही रहेंगे तो साथ में भय मिलता ही रहेगा। अभय कहाँ से आ जाएगा? हम असम्भव माँग करते हैं, हम कहते हैं, 'ज़िन्दगी में जो कुछ मुझे अच्छा लगता है, ज़िन्दगी में जो चीज़ें मुझे पसन्द हैं वो सब तो मिली ही रहें और आगे भी और मिलती जाएँ, बस डर न लगे!'




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