savidhan ka pehla kaam kya hai // Kosare Maharaj

संविधान वह सत्ता है जो, सर्वप्रथम, सरकार बनाती है। संविधान का दूसरा काम यह स्पष्ट करना है कि समाज में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास होगी। संविधान यह भी तय करता है कि सरकार कैसे निर्मित होगी । कोसारे महाराज टाइप करने के बाद आपको चैनलों की सूची में यह प्रमाणित चैनल दिखाई देगा, इस पर क्लिक करें और इसे फॉलो कर सकते हैं या हमारे साथ सीधे रूप से इस सोशल मीडिया के जरिया से आप हमारे साथ कभी भी आप जुड़ सकते हैं । हमारे सभी सोशल मीडिया चैनल कोसारे महाराज के नाम से ही वेबसाइट हैं जैसे की ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक, लिंकिंडीन, यूट्यूब, क्वोरा, टेलीग्राम, वीब्ली.कॉम, व्हाट्सप्प चैनल, व्हाट्सप्प बिज़नेस वगैरह Web : https://www.kosaremaharaj.com WhatsApp No. 9421778588 Email : kosaremaharaj@gmail.com

Samvidhan ka pehla kaam kya hai // Kosare Maharaj

  1.  संविधान का पहला काम क्या है // कोसारे महाराज
    1. संविधान को हिंदी में क्या कहा जाता है :
    2. संविधान के नियम कितने हैं :
      1. किसी देश को चलाने के लिए संविधान की जरूरत क्यों पड़ती है:
      2. अनुच्छेद 14 का क्या अर्थ है:
      3. भारत में कुल कितने कानून हैं :
      4. संविधान शब्द का अर्थ क्या है :
      5. संविधान के माता पिता कौन है :
      6. Reservation : क्यों हर 10 साल में रिन्यू होती है आरक्षण की तारीख, संविधान की वो पूरी कहानी समझिए
      7. आजादी से पहले शुरू हो गया था आरक्षण :
      8. आजादी के बाद आरक्षण की जरूरत क्या है :
      9. समाज को कुंठा से बचाने के लिए आरक्षण जरूरी है :
      10. आरक्षण तो ठीक लेकिन कब तक :
      11. चर्चा में क्यों :
      12. प्रमुख बिंदु:
      13. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
      14. आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधान:
      15. विभिन्न वर्गों के लिये आरक्षण की व्यवस्था:
      16. रिट की व्यवस्था:
      17. उच्च न्यायालय में रिट की अनुमति क्यों :
      18. निर्णय का महत्त्व:
      19. विभिन्न वर्गों के लिये आरक्षण की व्यवस्था:
      20. रिट की व्यवस्था:
      21. उच्च न्यायालय में रिट की अनुमति क्यों?
      22. निर्णय का महत्त्व:

 संविधान का पहला काम क्या है // कोसारे महाराज

संविधान का पहला काम क्या है?

संविधान वह सत्ता है जो, सर्वप्रथम, सरकार बनाती है। संविधान का दूसरा काम यह स्पष्ट करना है कि समाज में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास होगी। संविधान यह भी तय करता है कि सरकार कैसे निर्मित होगी ।




संविधान को हिंदी में क्या कहा जाता है :


सम और विधान, सम का अर्थ है समान और विधान का अर्थ है नियम और कानून. यानी जो नियम और कानून सभी नागरिकों पर एक समान रूप से लागू होते हैं, उसे संविधान कहा जाता है.




संविधान के नियम कितने हैं :


इसी प्रकार मूलतः संविधान में 395 धाराएं (articles) व 8 अनुसूचियां (schedules) थीं । आज यह संख्या क्रमश: 448 व 12 है ।




किसी देश को चलाने के लिए संविधान की जरूरत क्यों पड़ती है:


किसी भी देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान की आवश्यकता पड़ती है। संविधान, कानूनों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। जो सरकार की मूल संरचना और इसके कार्यों को निर्धारित करता है। जो सरकार के अंगों तथा नागरिकों के आधारभूत अधिकारों को परिभाषित तथा सीमांकित करता है।




अनुच्छेद 14 का क्या अर्थ है:


यह अवधारणा किसी भी व्यक्ति के पक्ष में विशेषाधिकार के अभाव को दर्शाता है। इसका तात्पर्य देश के अंतर्गत सभी न्यायालयों द्वारा प्रशासित कानून के सामने सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा, चाहे व्यक्ति अमीर हो या गरीब, सरकारी अधिकारी हो या कोई गैर-सरकारी व्यक्ति, क़ानून से कोई भी ऊपर नहीं है।


अनुच्छेद :- 335 :- "संघ या राज्य के कार्यों से संसक्त सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में प्रशासन कार्य पटुता बनाए रखने की संगति के अनुसार अनुसूचित जातियों और अनुसूचित आदिम जातियों के सदस्यों के दावों का ध्यान रखा जायेगा।


भारत में कुल कितने कानून हैं :


कानून अधिकारों का लाभ उठाकर मनुष्य के भ्रामक व्यवहार को नियंत्रित करने का एक कार्य या गतिविधि है। भारत के ये कानून अहम भूमिका निभाते हैं. भारतीय कानून व्यवस्था में हमारे पास लगभग 1248 कानून हैं।




संविधान शब्द का अर्थ क्या है :


संविधान मौलिक नियमों का एक समूह है जो यह निर्धारित करता है कि किसी देश या राज्य को कैसे चलाया जाता है। लगभग सभी संविधान "संहिताबद्ध" हैं, जिसका सीधा सा मतलब है कि वे "संविधान" नामक एक विशिष्ट दस्तावेज़ में स्पष्ट रूप से लिखे गए हैं।


6 मौलिक अधिकार कौन कौन से हैं :

मौलिक अधिकार: भारत का संविधान छह मौलिक अधिकार प्रदान करता है:

  1. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
  4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
  5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)


संविधान के माता पिता कौन है :


अंबेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के महू में 14 अप्रैल 1891 काे हुआ था। वे अपने पिता-माता रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14 वीं और आखिरी संतान थे। - बाबासाहेब के नाम से पहचाने जाने वाले अंबेडकर का जन्म एक गरीब परिवार मे हुआ था।

ब्राह्मण टीचर ने दिया था अपना सरनेम...

- अंबेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के महू में 14 अप्रैल 1891 काे हुआ था। वे अपने पिता-माता रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14 वीं और आखिरी संतान थे।
- बाबासाहेब के नाम से पहचाने जाने वाले अंबेडकर का जन्म एक गरीब परिवार मे हुआ था। एक नीची जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
- अंबेडकर के पूर्वज लंबे वक्त तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में काम करते थे। उनके पिता भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुए वे सूबेदार की पोस्ट तक पहुंचे थे।

- अपने भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूल एग्जाम में कामयाब हुए थे।
- स्कूली पढ़ाई में काबिल होने के बावजूद आंबेडकर और दूसरे बच्चों को स्कूल में अलग बिठाया जाता था। उनको क्लास रूम के अन्दर बैठने की इजाजत नहीं थी। साथ ही प्यास लगने प‍र कोई ऊंची जाति का शख्स ऊंचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के बर्तन को छूने की परमिशन थी।
- उनके एक ब्राह्मण टीचर महादेव अंबेडकर को उनसे खासा लगाव था। उनके कहने पर ही अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम 'अंबावडे' पर था।
- अंबेडकर की सगाई हिंदू रीति के मुताबिक, एक नौ साल की लड़की रमाबाई से तय हुई थी। शादी के बाद उनकी पत्नी ने अपने पहले बेटे यशवंत को जन्म दिया।
- अंबेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही लाॅ, इकोनॉमिक्स और पॉलिटिकल साइंस में अपने स्टडी और रिसर्च के कारण कोलंबिया यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स से कई डॉक्टरेट डिग्रियां भी लीं।
- डॉ. अंबेडकरर को भारतीय बौद्ध भिक्षुओं ने बोधिसत्व की उपाधि दी है। हालांकि, उन्होने खुद को कभी भी बोधिसत्व नहीं कहा।
- 1948 से अंबेडकर को डायबिटीज की बीमारी थी। जून से अक्टूबर 1954 तक वे काफी बीमार रहे। इस दौरान वे कमजोर होते नजर से परेशान थे।
- सियासी मुद्दों से परेशान अंबेडकर की सेहत बद-से-बदतर होती चली गई और 1955 के दौरान किए गए लगातार काम ने उन्हें तोड़कर रख दिया और 06 दिसंबर, 1956 को उनकी मृत्यु हो गई।
- अंबेडकर की मृत्यु के बाद उनके परिवार मे उनकी दूसरी पत्नी सविता अम्बेडकर रह गईं थीं। वे जन्म से ब्राह्मण थीं, लेकिन उनके साथ ही वे भी धर्म बदलकर बौद्ध बन गईं थीं। शादी से पहले उनकी पत्नी का नाम शारदा कबीर था। 2002 में उनकी भी मृत्यु हो गई।




Reservation : क्यों हर 10 साल में रिन्यू होती है आरक्षण की तारीख, संविधान की वो पूरी कहानी समझिए



देश में आरक्षण का आधार जाति बनी क्योंकि जातियों के आधार पर असमानताएं थीं इसीलिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई। आरक्षण पर 1953 में कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की रिपोर्ट को स्वीकार किया गया लेकिन ओबीसी की सिफारिश अस्वीकार कर दी गई। 90 के दशक में ओबीसी आरक्षण भी लागू हुआ और अब गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण आया है।

  • आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण बरकरार

  • आजादी से पहले ही शुरू हो गया था आरक्षण, अंग्रेजों के जाने पर नई डिबेट

  • संविधान सभा में 10 साल के लिए आरक्षण लाने का फैसला किया गया था




वैसे तो आरक्षण की शुरुआत आजादी से पहले ही हो गई थी, लेकिन इसका दायरा बढ़ता गया। अब आर्थिक रूप से कमजोर गरीब सवर्णों को आरक्षण देने पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है। तमाम अटकलों और आशंकाओं पर विराम लग गया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक और महत्वपूर्ण बात कही है, जिसे गहराई से समझने की जरूरत है। जस्टिस बेला एम त्रिवेदी ने आरक्षण पर संविधान निर्माताओं की भावनाओं की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि तब क्या सोचा गया था, जो आज 75 साल के बाद भी हासिल नहीं किया जा सका है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर एक बड़ी लकीर खींचते हुए कहा है कि इस प्रणाली पर विचार करने की जरूरत है। SC ने साफ कहा कि कोटा सिस्टम हमेशा के लिए नहीं रह सकता, एक समयसीमा तय करने की जरूरत है। आइए समझते हैं कि जब देश में संविधान तैयार किया जा रहा था तो हमारे नीति निर्माताओं ने आरक्षण पर क्या-क्या बात की थी?


डॉ. भीमराव आंबेडकर का विचार महज 10 साल के लिए आरक्षण लागू करके सामाजिक सौहार्द लाने का था लेकिन यह पिछले सात दशकों से जारी है। आरक्षण अनंतकाल तक जारी नहीं रहना चाहिए और अगर ऐसा होता है तो वह निजी स्वार्थ है।


आजादी से पहले शुरू हो गया था आरक्षण :


आजादी मिलने से करीब 20 साल पहले ही अंग्रेज अछूत जातियों के लिए अलग से एक अनुसूची बना चुके थे। इसे अनुसूचित जातियां कहा गया। बाद में भारतीय संविधान में भी इसे जारी रखा गया। अंग्रेजों के देश छोड़ने से पहले ही संविधान सभा का गठन हो चुका था। आगे समितियां बनीं और बैठकों में चर्चा शुरू हुई। इस दौरान आरक्षण पर विस्तार से अलग-अलग सवाल उठे। समानता बनाम योग्यता का सवाल आया। पूछा गया कि क्या अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद भी आरक्षण की जरूरत है? इसका हकदार कौन है, आरक्षण जाति के आधार पर दिया जाए या फिर आर्थिक आधार पर? फिर एक बड़ा सवाल उठा आरक्षण कब तक रहेगा? इसी बात की तरफ सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस त्रिवेदी और जस्टिस पारदीवाला ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए सबका ध्यान खींचा।

आजादी के बाद आरक्षण की जरूरत क्या है :


गुलामी की जंजीरें टूट चुकी थीं, संविधान सभा में शामिल नीति निर्माताओं को लग रहा था कि जब अंग्रेज नहीं रहेंगे तो भारतीयों के बीच आरक्षण की जरूरत ही क्या होगी? बहस देख संविधान सभा ने सलाहकार समिति बनाई और उसने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश कर दी। बहस तेज हुई मई 1949 में संविधान में आरक्षण की जरूरत पर जोर दिया गया। तब आरक्षण के समर्थन में सभा के सदस्य एस नागप्पा ने कहा था कि देश में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अल्पसंख्यक हैं। उनका प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने के लिए आरक्षण होना चाहिए। उन्होंने आगे यह तर्क भी रखा, 'मैं आरक्षण मना करने के लिए तैयार हूं, लेकिन इसके लिए हरिजन परिवार को 10-20 एकड़ जमीन, बच्चों के लिए विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा मुफ्त में मिले। इसके साथ ही नागरिक विभागों या सैन्य विभागों में प्रमुख पदों का पांचवां हिस्सा दिया जाए।'





SC, ST और ओबीसी
बहस आगे बढ़ी, चर्चा होने लगी कि किसे पिछड़ा कहा जाएगा। परिभाषा क्या होगी? टीटी कृष्णामाचारी ने कहा, 'क्या मैं पूछ सकता हूं कि भारत के किन लोगों को पिछड़ा समुदाय कहा जाए।' SC और ST के लिए नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान बनाया गया लेकिन प्रस्ताव खारिज हो गया। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने एससी, एसटी की जगह पिछड़ा वर्ग कहकर संबोधित किया। एए गुरुंग ने कहा, 'अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को तो शामिल किया गया है लेकिन शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों को नहीं।' केएम मुंशी ने कहा, 'पिछड़ा वर्ग शब्द को समुदाय विशेष तक सीमित नहीं रखना चाहिए।'

आर्थिक आधार पर आरक्षण को ना
लंबी चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना ठीक नहीं होगा। यह छुआछूत जैसे जातिगत भेदभाव को मिटाने का जरिया है। ऐसे में संविधान में जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की गई और SC-ST को आरक्षण दिया गया। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में कौन होगा, इसकी परिभाषा संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में दी गई है। संविधान का अनुच्छेद 16 (4) नागरिकों के पिछड़े वर्गों के हित में आरक्षण की अनुमति देता है और अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के बारे में विशेष रूप से उल्लेख नहीं करता है।
संविधान में यह जरूर लिखा है कि राष्ट्रपति, राज्यपाल के परामर्श पर उन जातियों, जनजातियों को लेकर फैसला करेंगे, जिन्हें अनुसूचित जातियां समझा जाएगा। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए यही बात कही गई है। इससे साफ है कि संविधान सभा में SC-ST की परिभाषा तय नहीं की जा सकी थी। जाति के आधार पर आरक्षण के लाभ के विरोध में आवाजें उठीं। कहा गया कि अल्पसंख्यकों का वर्गीकरण आर्थिक आधार पर होना चाहिए, जिसका आधार ऐसी नौकरी हो जिससे जीविका चलाने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं होती है। मांग की गई कि अनुसूचित जाति के स्थान पर भूमिहीन मजदूर, मोची या ऐसे लोगों को विशेष आरक्षण दिया जाना चाहिए जिनकी कमाई जीने के लिए पर्याप्त नहीं है।

आखिर में तय हुआ कि...
धर्मशास्त्री जेरोम डिसूजा ने तर्क रखा कि किसी व्यक्ति की जाति या धर्म को आरक्षण के लिए विशेष आधार नहीं माना जाना चाहिए। किसी को इसलिए सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि वह गरीब है। आखिर में जाति के सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण तय किया गया।

समाज को कुंठा से बचाने के लिए आरक्षण जरूरी है :


डॉ. आंबेडकर ने महत्वपूर्ण बात कही, '150 साल तक मजबूती से कायम रही अंग्रेजी हुकूमत में भारत के सवर्ण अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे क्योंकि प्रतिनिधित्व नहीं मिला। जो गरीब वंचित लोग हैं उनका जो अधिकार हैं उनको नहीं मिला उन्हें उनका जो भी अधिकार हैं उनको वह मिलना चाहिए ऐसे में भारत के दलित समाज की स्थिति का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।' बहस के बाद सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण की बात पर सहमति बनी। अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है लेकिन कहीं भी आर्थिक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। यही वजह है कि सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार को आर्थिक रूप से कमजोर शब्द जोड़ने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़ी।



आरक्षण तो ठीक लेकिन कब तक :


आखिर में बड़ा सवाल था कि आरक्षण कब तक रहेगा? संविधान सभा के सदस्य हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि संविधान के लागू होने के बाद 10 साल तक आरक्षण के प्रावधान में कोई बाधा नहीं होगी लेकिन ये प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए लागू नहीं रहना चाहिए। इस प्रावधान की समय-समय पर जांच होनी चाहिए कि वास्तव में पिछड़े तबकों की स्थिति में बदलाव आ रहा है या नहीं। ठाकुर दास भार्गव ने भी कहा था कि इस तरह के प्रावधान को 10 साल से ज्यादा न रखा जाए, बहुत जरूरत पड़े तो ही बढ़ाया जाए। निजामुद्दीन अहमद ने कहा कि नहीं, इस सिस्टम को अनिश्चितकाल रखना चाहिए, लेकिन यह प्रस्ताव पास नहीं हुआ।


मुसलमान 1892 से सुविधा भोग रहे है, ईसाइयों को 1920 से सुविधाएं मिल रही हैं। अनुसूचित जाति को तो सिर्फ 1937 से ही कुछ लाभ दिए जा रहे हैं इसलिए उन्हें ज्यादा लंबे समय तक सुविधाएं दी जानी चाहिए। चूंकि एक बार में 10 साल के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पास हो चुका है, मैं इसे स्वीकार करता हूं। हालांकि इसे बढ़ाने का विकल्प हमेशा रहना चाहिए।






संविधान सभा ने सरकारी शिक्षण संस्थानों, सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरियों में एसी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण तय किया था। यह 10 वर्षों के लिए था। कहा गया था कि 10 साल के बाद इसकी समीक्षा की जाएगी। जबकि सच्चाई यह है कि 75 साल तक बिना किसी गंभीर समीक्षा के आरक्षण को हर 10 साल के बाद बढ़ाया जाता रहा। अब सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर बात कही है।
आरक्षण के तहत नौकरी की पहली भर्ती और अहम पड़ाव

आजादी मिलने पर खुली प्रतियोगिता के जरिए भर्ती निकाली गई। इस संबंध में 12.5% रिक्तियां अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित की गईं।21/9/1947 को आदेश जारी किया गया। 1951 की जनगणना में पता चला कि कुल जनसंख्या में अनुसूचित जातियों का प्रतिशत 15.05 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों का प्रतिशत 6.31 था। 1961 की जनगणना में सामने आया कि एससी 14.64 प्रतिशत और एसटी 6.80 प्रतिशत थे।
25/3/1970 को आरक्षण की प्रतिशतता अनुसूचित जातियों के लिए 12.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों के लिए 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया गया।
1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट आई और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22 प्रतिशत से 49.5 प्रतिशत करने की सिफारिश की गई। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को वीपी सिंह सरकार ने सरकारी नौकरियों में लागू कर दिया। 1992 में ओबीसी आरक्षण को सही ठहराया गया। बाद में केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ।
भारत में 49.5 प्रतिशत का आरक्षण चलता रहा। सुप्रीम कोर्ट का फैसला था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता लेकिन राज्य आगे बढ़ गए। अब गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत अलग कोटा का प्रावधान किया गया है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगाई है।


आरक्षण मौलिक अधिकार नाही: सर्वोच्च न्यायालय


चर्चा में क्यों :


हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक आरक्षण संबंधी मामले में अनुच्छेद-32 के तहत दायर याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि आरक्षण एक मौलिक अधिकार नहीं है।


प्रमुख बिंदु:


याचिका में तमिलनाडु में मेडिकल पाठ्यक्रमों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अभ्यर्थियों को 50% आरक्षण नहीं देने के केंद्र सरकार के निर्णय को चुनौती दी गई थी।
याचिका में तमिलनाडु के शीर्ष नेताओं द्वारा वर्ष 2020-21 के लिये ‘राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा’ (National Eligibility Cum Entrance Test- NEET) में राज्य के लिये आरक्षित सीटों में से 50% सीटें ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (OBC) हेतु आरक्षित करने के लिये केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी।


सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:


सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत एक याचिका केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में दायर की जा सकती है।
आरक्षण का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। अत: आरक्षण नहीं देना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ताओं को उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने की अनुमति प्रदान करते हुए याचिका वापस लेने को कहा है।


आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधान:


यद्यपि भारतीय संविधान के भाग-III के अंतर्गत अनुच्छेद 15 तथा 16 में आरक्षण संबंधी प्रावधानों को शामिल किया गया हैं।

परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इन अनुच्छेदों की प्रकृति के आधार पर इन्हे मौलिक अधिकार नहीं माना है। इसलिये इन्हें लागू करना राज्य के लिये बाध्यकारी नहीं हैं।
आरक्षण की अवधारणा आनुपातिक नहीं, बल्कि पर्याप्त (Not Proportionate but Adequate) प्रतिनिधित्व पर आधारित है, अर्थात् आरक्षण का लाभ जनसंख्या के अनुपात में उपलब्ध कराने की बजाय पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये है।


विभिन्न वर्गों के लिये आरक्षण की व्यवस्था:


वर्तमान में सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों (SC) के लिये 15%, अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिये 7.5%, अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) के लिये 27% तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (EWS) के लिये 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई है, यदि उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है ।


रिट की व्यवस्था:


उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय को देश में न्यायिक व्यवस्था को बनाए रखने, व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा संविधान के संरक्षण का दायित्व प्रदान किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 32 तथा उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकारिता प्रदान की गई है ।
इन अनुच्छेदों के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण ( Certiorari) और अधिकार-प्रच्छा (Quo-Warranto) आदि रिट जारी की जा सकती है।


उच्च न्यायालय में रिट की अनुमति क्यों :


उच्चतम न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी कर सकता है जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य मामलों में भी रिट जारी कर सकता है।
उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत दायर रिट की सुनवाई से मना नहीं कर सकता जबकि अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय सुनवाई के लिये याचिका स्वीकार करने से मना कर सकता है क्योंकि अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकारों का भाग नहीं है।


निर्णय का महत्त्व:


चूँकि सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है अत: आरक्षण के उल्लंघन पर अनुच्छेद 32 के तहत रिट स्वीकार करना अनिवार्य नहीं है।
निर्णय के बाद आरक्षण संबंधी मामलों में रिट याचिका सीधे सर्वोच्च न्यायालय के स्थान पर उच्च न्यायालयों में लगानी होगी क्योंकि उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता में मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य मामले भी शामिल होते हैं।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक आरक्षण संबंधी मामले में अनुच्छेद-32 के तहत दायर याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि आरक्षण एक मौलिक अधिकार नहीं है।
प्रमुख बिंदु:
याचिका में तमिलनाडु में मेडिकल पाठ्यक्रमों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अभ्यर्थियों को 50% आरक्षण नहीं देने के केंद्र सरकार के निर्णय को चुनौती दी गई थी।
याचिका में तमिलनाडु के शीर्ष नेताओं द्वारा वर्ष 2020-21 के लिये ‘राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा’ (National Eligibility Cum Entrance Test- NEET) में राज्य के लिये आरक्षित सीटों में से 50% सीटें ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (OBC) हेतु आरक्षित करने के लिये केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत एक याचिका केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में दायर की जा सकती है।
आरक्षण का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। अत: आरक्षण नहीं देना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ताओं को उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने की अनुमति प्रदान करते हुए याचिका वापस लेने को कहा है।
आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधान:
यद्यपि भारतीय संविधान के भाग-III के अंतर्गत अनुच्छेद 15 तथा 16 में आरक्षण संबंधी प्रावधानों को शामिल किया गया हैं।
परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इन अनुच्छेदों की प्रकृति के आधार पर इन्हे मौलिक अधिकार नहीं माना है। इसलिये इन्हें लागू करना राज्य के लिये बाध्यकारी नहीं हैं।
आरक्षण की अवधारणा आनुपातिक नहीं, बल्कि पर्याप्त (Not Proportionate but Adequate) प्रतिनिधित्व पर आधारित है, अर्थात् आरक्षण का लाभ जनसंख्या के अनुपात में उपलब्ध कराने की बजाय पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये है।


विभिन्न वर्गों के लिये आरक्षण की व्यवस्था:


वर्तमान में सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों (SC) के लिये 15%, अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिये 7.5%, अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) के लिये 27% तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (EWS) के लिये 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई है, यदि उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है ।


रिट की व्यवस्था:


उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय को देश में न्यायिक व्यवस्था को बनाए रखने, व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा संविधान के संरक्षण का दायित्व प्रदान किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 32 तथा उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकारिता प्रदान की गई है ।
इन अनुच्छेदों के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण ( Certiorari) और अधिकार-प्रच्छा (Quo-Warranto) आदि रिट जारी की जा सकती है।


उच्च न्यायालय में रिट की अनुमति क्यों?


उच्चतम न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी कर सकता है जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य मामलों में भी रिट जारी कर सकता है।
उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत दायर रिट की सुनवाई से मना नहीं कर सकता जबकि अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय सुनवाई के लिये याचिका स्वीकार करने से मना कर सकता है क्योंकि अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकारों का भाग नहीं है।


निर्णय का महत्त्व:


चूँकि सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है अत: आरक्षण के उल्लंघन पर अनुच्छेद 32 के तहत रिट स्वीकार करना अनिवार्य नहीं है।
निर्णय के बाद आरक्षण संबंधी मामलों में रिट याचिका सीधे सर्वोच्च न्यायालय के स्थान पर उच्च न्यायालयों में लगानी होगी क्योंकि उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता में मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य मामले भी शामिल होते हैं। 


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नेहा अपार्टमेंट फ्लैट नंबर २०२, दूसरा मजला, उमरेड रोड, रामकृष्ण नगर, नागपुर-४४००३४.

कोसारे महाराज 👉 संस्थापक ( राष्ट्रीय अध्य्क्ष )

मानव हित कल्याण सेवा संस्था नागपुर ( महाराष्ट्र प्रदेश )

भारतीय जनविकास आघाडी ( राजकीय तिसरी आघाडी मुख्य संयोजक )


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