आज भारत पढ़े-लिखो का अनपढ़ देश बन चुका है।यहां बेरोजगारी की स्थिति किसी महामारी से कम नहीं है।

भारत में संभ्रांत युवतियों की शिक्षा वैश्विक स्तर की है। इसका मतलब यह कि आजादी का लाभ उन लोगों को नहीं मिला, जो अमीर नहीं हैं। यानी आर्थिक गैरबराबरी आजादी के साढ़े छह दशक बाद न सिर्फ कायम है, बल्कि शिक्षा पर उसका असर चौंकाता है। प्राथमिक शिक्षा की ऐसी बदहाली के पीछे हमारे नीति-नियंताओं का उदासीन रवैया जिम्मेदार है। आजादी के शुरुआती दशकों में कमजोर वर्ग उत्पीड़न, अशिक्षा और गरीबी हटाने के प्रश्न पर नेतागण कहते थे कि अभी आजाद हुए समय ही क्या हुआ है, धीरे-धीरे सब दुरुस्त हो जाएगा। लेकिन अब तो साढ़े छह दशक बीत चुके हैं। सबके शिक्षित होने के लिए और कितना इंतजार करना पड़ेगा?

 सरकार किसी भी पार्टी की हो सबसे पहली प्राथमिकता शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए बाकि सब बेकार हैं हमारे भारत देश में जो गरीब वर्ग हैं उन्हें शिक्षित होने में काफी मशागत उठानी पड़ती हैं कम से कम बारवी की शिक्षा सभी हमारे देश के वाशियो को  अनिवार्य हो उस से कम ना हो बल्कि वृद्धि हो युवाओं का देश कहे जाने वाले भारत में हर साल 30 लाख युवा स्नातक व स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करते हैं। इसके बावजूद देश में बेरोजगारी दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ रही है। 

सालाना बढ़ती शिक्षित बेरोजगारों की तादाद भारतीय शैक्षणिक पद्धति को सवालों के घेरे में खड़ा करती है, उस भारतीय शैक्षणिक पद्धति को जिसने भारतीयों को धर्म और अध्यात्म तो खूब सिखाया पर उसी भारत के युवाओं को उनकी काबिलियत सिद्ध करने का हुनर न सिखा सकी।
होना तो यह चाहिए था कि सरकार शिक्षा को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखती। आर्थिक रूप से ताकत बनने का सदुपयोग सबको शिक्षित करने में करती। इसके बजाय आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के अनुरूप उसने शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे पूरी तरह खोल दिए। गली-गली में निजी स्कूल खुल गए, जो अध्ययन का स्तर तो नहीं बढ़ा पाए, हां, गरीब लोगों को भी शिक्षा के लिए खर्च करने के प्रति इन स्कूलों ने जरूर प्रेरित किया। यहां शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थाओं का प्रवेश विगत डेढ़ दशक में जितनी बड़ी तादाद में हुआ है, उतना पिछले चौरतर  वर्षों में नहीं हुआ।

 शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपकर सरकारें व्यवसायियों का तो भला कर सकती हैं, परंतु इससे देश के जनसामान्य, गरीब लोगो  का भला नहीं हो सकता। सर्वेक्षण बताता है कि किसी भी सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को लेकर अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया है। खासकर निर्धन, गरीब  समाज को शिक्षित करने की जिम्मेदारी नहीं निभाई गई। एक समर्थ देश होने की भारत की क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ है। 

हाल ही में उच्च शिक्षा के लिए विश्व के ख्यात विश्वविद्यालयों, पाठ्यक्रमों, छात्रों व रोजगार के अवसरों पर हुए सर्वे ने भारतीय उच्च शिक्षा की वास्तविकता उजागर की है। इस सर्वे से साफ होता है कि आज भारत पढ़े-लिखो का अनपढ़ देश बन चुका है। हमारी तामझाम वाली उच्च शिक्षा हकीकत से कोसों दूर है, जबकि हम अपनी झूठी शान की तूती ही बजाते फिर रहे हैं।
हम अमेरिका, इंग्लैंड, चीन व जापान जैसे देशों की तुलना में कहीं भी खड़े दिखाई नहीं देते, जबकि इन देशों में छात्रों को न तो हाथ पकड़कर लिखना सिखाया जाता है और न ही वहां के पाठ्यक्रम भारत की तरह बेबुनियादी होते हैं।

इन देशों में प्रोफेशनल कोर्सों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। बच्चों से लेकर युवाओं तक की बुनियादी पढ़ाई कम्प्यूटरों पर होती है जिससे वे कम्प्यूटर की दुनिया में महारत पा लेते हैं और अंग्रेजी उनकी पैतृक संपदा होने के कारण इन्हें कोई कठिनाई नहीं जाती।
परंतु इनकी तुलना में हमारा बुनियादी ढांचा बेहद कमजोर है। एक ओर जहां हम बच्चों को छठी-सातवीं से अंग्रेजी के ए, बी, सी, डी पढ़ाते हैं तो वहीं स्नातक स्तरों पर छात्रों को कम्प्यूटर की शिक्षा दी जाती है जिससे जाहिर है कि अमेरिका के बच्चे की अपेक्षा भारत का बच्चा पिछड़ा ही होगा।

उच्च शिक्षा के लिए सर्वे करने वाली संस्था एसोचैम ने भारतीय शिक्षा के साथ यहां के युवाओं को हर तरह से अयोग्य ठहराया है। संस्था का मानना है कि भारत में 85 फीसदी ऐसे शिक्षित युवा हैं, जो अच्छी-खासी पढ़ाई के बावजूद किसी भी परिस्थिति में अपनी योग्यता सिद्ध नहीं कर सकते। 47 फीसदी शिक्षित युवा रोजगार के लिए अयोग्य माने गए हैं, 65 फीसदी युवा क्लर्क का काम भी नहीं कर सकते और 97 फीसदी शिक्षित युवा अकाउंटिंग का काम सही तरीके से नहीं कर सकते।
देश में शिक्षा की गुणवत्ता का अंदाजा इसी आधार पर लगाया जा सकता है कि यहां इन्हीं शिक्षित युवाओं में से 90 फीसदी युवाओं से कामचलाऊ अंग्रेजी भी नहीं बनती। साथ ही एक दूसरी संस्था ने नौकरी-पेशा करने वाले युवाओं का सर्वे कर उनकी मासिक व सालाना आय पर अपनी रिपोर्ट पेश की।

इस रिपोर्ट में बताया गया कि देश का 58 फीसदी युवा बमुश्किल 65,000 रुपए सालाना कमा पाता है जबकि अधिकांश स्नातक छात्र देश के रोजगार कार्यक्रम मनरेगा की दर पर ही 6250 रुपए मासिक कमा लेते हैं, ऐसे में भारतीय शिक्षा से अच्छी मजदूरी कही जा सकती है, जो बिना लाखों खर्च किए पैसे तो देती है। भारत में एक ओर युवाओं को महाशक्ति माना गया लेकिन दूसरी ओर उसे बेरोजगारी व नाकामी की जंजीरों में भी जकड़ा गया है।
बहरहाल, युवाओं के लिए भारतीय उच्च शिक्षा पूरी तरह नाकाम साबित हुई है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा कि देश में शिक्षा सुधार के लिए कोई उपाय नहीं किए गए। देश में 650 शैक्षणिक संस्थान व 33,000 से ज्यादा डिग्री देने वाले कॉलेज हैं लेकिन इनमें दशकों पुराने पाठ्यक्रमों का आज भी उपयोग किया जा रहा है।

शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए न तो यूजीसी ही ध्यान दे पा रही है और न ही विश्वविद्यालयों का आला प्रशासन इस पर अपनी पकड़ बना पा रहा है, नतीजतन सारी की सारी घिसी-पिटी शिक्षा कॉलेजों के हवाले कर दी जाती है जिससे ये कॉलेज अपनी मनमानी कर पाठ्यक्रमों को निपटा देते हैं। यहां तक कि कॉलेज व विश्वविद्यालय छात्रों से मोटी-मोटी रकम लेकर उनकी फर्जी अंकसूची तक तैयार कर देते हैं जिससे जरूर कॉलेज व विश्वविद्यालयों का नाम रोशन होता है लेकिन छात्र को पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता।
दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि शैक्षणिक स्तर सुधारने के लिए आज तक कोई राष्ट्रीय समिति नहीं बनाई गई, जो राष्ट्रीय स्तर पर बैठक कर कोई बेहतर हल निकाल सके। यहां तक कि हमारी राजनीति में भी शिक्षा सुधार नीतियां नहीं बनाई गईं।

शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है लेकिन भारत की असंवेदनशील राजनीति को आरोप-प्रत्यारोप के अलावा अन्य किसी विषय पर विचार करने का समय ही नहीं है।
देश में वैसे तो एक से बढ़कर एक संस्थान हैं, पर कोई भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि नहीं बना सका है और न ही छात्रों को उनकी का‍बिलियत सिद्ध करने का पूरा हौसला दे सके हैं। देश का एक इतना बड़ा तबका शिक्षित होते हुए भी आज बेरोजगार है, जो भारत की विकासशीलता में भी बाधा बना हुआ है। यहां बेरोजगारी की स्थिति किसी महामारी से कम नहीं है।
देश के शीर्ष अर्थशास्त्रियों ने भी माना है कि देश में बढ़ती गरीबी युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी का ही नतीजा है। यदि भारत को आर्थिक मजबूती देनी है तो हमारे शासन को कहीं से भी भारतीय युवाओं को रोजगार मुहैया कराना होगा जिसके लिए सर्वप्रथम शिक्षा की गुणवत्ता बदलनी होगी।

स्कूली स्तर से ही अंग्रेजी व कम्प्यूटर का ज्ञान छात्रों को देना होगा, पाठ्यक्रमों को बदलना होगा व रोजगार के अवसरों पर भी ध्यान देना होगा। राजनीति में पार्टियों द्वारा प्रस्तुत अभिलेखों व कार्यों में शिक्षा को दर्शाना होगा।
कुल मिलाकर सभी को शिक्षा के प्रति अपनी झूठी शान को हटाकर जमीनी स्तर पर कार्य करना होगा, तभी जाकर देश का इतना बड़ा तबका पूर्ण साक्षर होगा व उसे रोजगार के बेहतर अवसर भी प्राप्त होंगे। 
( कोसारे महाराज )

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